Monday, February 11, 2013

तीन गीत




अगन में अगन 

जल में जल मिल जइहै,
अगन में अगन प्यारे!
रोके से न रुकिहै,
करो सौ जतन प्यारे!

वाणी है संतन की 
वेदन, पुरानन की.
का है जरूरत अब
भटकन, भटकावन की.

बंद द्वार खुल जइहैं
होई मुकत मन प्यारे!

परम शान्ति में एक दिन
होगी जब गति भंग
श्वेत-श्याम चादर यह
होगी सब एक रंग

माटी में माटी फिर
पवन में पवन प्यारे!

*

मन पत्थर का 

एक पाट  बुद्धि का
एक पाट उदार का.
दोनों के बीच ह्रदय 
धड़के बित्ता भर का.

भूख भुला दे सबको
अपना ईमान धरम.
और बुद्धि अहंकार-
का लहराए परचम.

डर है, न कर डाले
मन कहीं पत्थर का.

द्वन्द्व भरे जीवन की
अनदेखी गहराई 
पार करे कैसे
कोई गहरी ये खाई

एक भरोसा है बाकी
बस अपने अंदर का.

*

बतियाँ बिसर गईं.

बतियाँ बिसर गईं
बूढ़े-पुरानों की
कितनी कहानियाँ 
कितने जमानों की.

आगत, अनागत,
संभव, असंभव को,
काल धराशायी
करता गया सबको,

गूंजें-अनुगूंजें भी
शक्तिहीनों के रहीं 
न रहीं शक्तिवानों की.

विस्मृति के दंश खा
स्मृति को मांजना
दुहकर हो गया, योग
दोहरा ये साधना

पाकर भी क्या होगा  
सपने वीरानों के,
सुधियाँ वीरानों की.

(अक्षरम संगोष्ठी से साभार)
pic. credit : google search 

थोड़ा संगीत बचाए रखना :::: एक गीत


 चित्र  सौजन्य: गूगल: द हिंदू 

सोहर के, गौने के, मंगल के, गीत बचाए रखना.
जीवन ये  उत्सव है , थोड़ा संगीत बचाए  रखना.

वैसे तो मेले भी 
अब अपना रूप बदलने लगे 
फुर्सत के पल 
जितने भी थे, चलने लगे
अगन नहीं, चिंगारी ही सही, प्रीत बचाए रखना.
जीवन ये  उत्सव है,थोड़ा संगीत बचाए रखना.

ऐसा न हो आंखों की 
प्रफुल्लता पूरी मर जाए,
बूंद-बूंद पानी की 
चाहत में सिर्फ धूल भर जाए 
कभे-कभी आस्तीन भीगी, मनमीत! बचाए रखना.
जीवन ये उत्सव है, थोड़ा संगीत बचाए  रखना.

अंकुराती बेल नई, खोजेगी 
कल के दिन अपनी विरासत जब, 
खाली भंडार देख कर उसकी 
सोचो तो क्याः होगी हालत तब, 
लोक की कसम तुमको,कुछ लोकगीत बचाए रखना.
जीवन ये  उत्सव है , थोड़ा संगीत बचाए  रखना.

(srijangatha se saabhaar)

Friday, February 1, 2013

मुरलीधर वैष्णव की एक कविता : कचरा बीनती लड़की




मां ने भले ही जन्म दिया हो उसे
मजदूरी करते हुए 
कचरे के आस पास
लेकिन फेंका नहीं उसे
कचरे के ढेर पर उसने,
जैसे फेंक दिया था कई कई बार
बड़ी हवेली वालों ने
अपने ही खून को.

बड़ी हो गई है अब वह 
उठ कर मुंह अंधेरे रोजाना
निकल पड़ती है वह बस्तियों में
कचरा बीनने
उसके कंधे से लटका
यह पोलिथीन का बोरा नहीं
किसी योगिनी का चमत्कारी झोला है
जिसमें भर लेगी वह 
पूरे ब्रह्माण्ड  का कचरा
सीख लिया है उसकी आंखों ने
खोजना और बीनना
हर कहीं का कचरा
भांप लेती है उसकी आंखें
आवारा आंखों को भी
और बीन लेती है वह
उनमें भरे कचरे को भी 

शाम को जब रखती है वह झोला
कबाड़ी के तराजू में
उठती है उसमें से तब
तवे पर सिकती रोटी की महक
उगता है उसमें से
उसका छोटा-सा सपना

कचरा बीनती है वह 
ताकि कचरा न रहे
हमारे बाहर
और हमारे भीतर भी

- मुरलीधर वैष्णव
ए-77, रामेश्वर नगर, बासनी प्रथम,
जोधपुर-342005
मो.: 9460776100