Sunday, November 20, 2011

उसकी कविता

-रमेश तैलंग


उसे मैं हर रोज अपने साथ-साथ
कविता रचते हुए पाता हूं.

जब मैं सोच रहा होता हूं
कविता का विषय क्या हो ,
वह सोच रही होती है-
'आज घर में क्या पकेगा?'

जब मैं ढूंढ रहा होता हूं
कविता में जड़ने के लिए उपयुक्त शब्द
वह चुग रही होती है कनियों से भरी थाली में से
साबुत चावल का एक-एक दाना.

जब मैं काट रहा होता हूं
लिख-लिख कर
अनचाही पंक्तियाँ
वह फेंक रही होती है
उबले हुए आलुओं से उतारे हुए छिलके.

जब मैं दे रहा होता हूं घुमाव
कविता में जन्म लेती लय को,
वह घुमा रही होती है
चकले पर पड़ी आटे की लोई
रोटी की शक्ल देने के लिए.

जब मैं ले रहा होता हूं
राहत भरी सांस
कविता रचने के बाद
वह पोंछ रही होती है
साडी के पल्लू से
माथे पर झलक आया
बूँद-बूँद पसीना.

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