Saturday, June 18, 2011

हिंदी बाल कविता में कथा-सूत्र यानी किस्सागोई की बाल कविता




अपने आरंभकाल से ही हिंदी बाल कविता कुछ ऐसी अनूठी विशेषताओं को लेकर विकसित हुई है कि उसकी बानगी एवं ताजगी बस देखते ही बनती है. इन विशेषताओं में बाल मनोविज्ञान की सुन्दर अभिव्यक्ति, पारिवारिक संबंधों का आत्मीय चित्रण, जीव-जंतुओं के कार्य कलाप, प्रकृति से साहचर्य, कविता में किस्सागोई का मणिकांचन योग, भौतिक एवं तकनीकी उपकरणों का मानवीकरण, लोक-लय , लोक-भाषा एवं अंग्रेजी शब्दावली का यथा-योग्य संतुलित प्रयोग, तोतलापन, गेयता एवं नाटकीयता आदि सभी शामिल हैं.

इस लघु आलेख में मेरा उद्दयेश्य इन सभी विशेषताओं के शास्त्रीय पक्ष को उद्घाटित करना नहीं है वरन उन चंद बाल कविताओं को रेखांकित करना है जिनमे कथा-सूत्र के माध्यम से कवियों ने एक विधा से दूसरी विधा में आवागमन करने की स्वंत्रता ली है और इस प्रयास में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं.

आप जानते हैं कि किस्सागोई हमारे जीवन का अटूट हिस्सा रही है. पौराणिक एवं एतिहासिक महाकाव्य और आल्हाखंड जैसी गीत-गाथाएं इस तथ्य का अनुपम उदाहरण हैं. पर बाल कविताओं में किस्सागोई या कथासूत्र की उपस्थिति एक सीमा के अंतर्गत ही संभव है. इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि बाल कविता का अपना कलेवर छोटा होता है इसलिए उसमे कोई बड़ी कथा समाविष्ट नहीं हो सकती. हालांकि अपवादस्वरूप "झाँसी की रानी" जैसी बाल कविताओं में इस तरह का जोखिम सफलता के साथ लिया गया है जों अपनी एतिहासिक विषयवस्तु एवं प्रवाहमयी भाषा के चलते कहीं भी नहीं अखरता. अतएव मेरा तो यह मानना है कि अगर कोई बाल कविता अपने आकार में थोड़ी बड़ी है और उसमे कथा प्रवाह अपनी पूरी दृश्यात्मकता एवं रोमांच के साथ मौजूद है तो वह बाल-पाठकों के लिए रुचिकर एवं आनंददायक सिद्ध हो सकती है. अंग्रेजी भाषा में भी ऐसे प्रयोग हुए हैं और उन्हें नरेटिव पोएट्री फॉर चिल्ड्रेन की श्रेणी में रखा गया है.

जहाँ तक हिंदी बाल कविताओं में किस्सागोई की बात है तो बहुत सी ऐसे बाल कविताएँ मेरी स्मृति में आ रही हैं जिनमे कोई न कोई छोटी-बड़ी मनोरंजक कथा पिरोई गई है और जिनका अलग-अलग प्रभाव मेरे मानस पर अंकित है. इन बाल कविताओ में सुखराम चौबे "गुणाकर" की बनावटी सिंह", दामोदर सहाय "कविकिंकर" की मोर् बेचारे", पंडित सुदर्शनाचार्य की "हाऊ और बिलाऊ", पुरुषोत्तमदस टंडन की "बन्दर सभा" मैथिलीशरण गुप्त की "माँ,कह एक कहानी", रामनरेश त्रिपाठी के "निशा मामी", पद्म पुन्ना लाल बख्शी की "बुढिया", भूप नारायण दीक्षित की "तींन बिल्लियाँ", सुभद्राकुमारी चौहान की "झांसी की रानी", हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की "नानी की नाव", हरिवंश राय बच्चन की "काला कौआ", रामेश्वरदयाल दुबे की "खोटी अठन्नी", रामधारीसिंह दिनकर की "चांद का कुरता", निरंकार्देव सेवक की "अगर-मगर", कन्हैया लाल मत्त की "छोडो बिस्तर, ननकू भैया, तोतली बुढिया, नक़ल नवीसी की बीमारी" "कलम दवात की लड़ाई", सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की "बतूता का जूता", शेरजंग गर्ग की "तीनो बन्दर महा धुरंधर, प्रकाश मनु की "एक मटर का दाना", देवेन्द्र कुमार की "सड़कों की महारानी", कृष्ण शलभ की "खत्म हो गए पैसे" , रमेश तैलंग की "एक चपाती, निक्का पैसा और सोंन मछरिया, लता पन्त की अजब नज़ारे,सफ़दर हाशमी की "राजू और काजू", सुरेश कांत की "जंगल में क्रिकेट" और अभिरंजन कुमाँर की "छोटी चिडिया" के नाम लिए जा सकते है.

इसमें दो राय नहीं कि इनमे कई ऐसी बाल कविताएँ भी शामिल हैं, जिनमे कथा-सूत्र का निर्वाह पूरी तरह नहीं हो पाया है पर यहाँ यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि बच्चे भले ही पूरी कथा को ग्रहण न कर सकें पर उन कविताओं को पढ़-सुन कर यदि उनके मन में थोड़ी-सी भी जिज्ञासा, कल्पना-शक्ति या मनोरंजन की अनुभूति जागती है तो ऐसी बाल कविताएँ अपने श्रेय और प्रेय दोनों को पा जाती हैं.

आरम्भ काल के कवि सुखराम चौबे "गुणाकर" की एक लोक कथा पर आधारित बालकविता "बनावटी सिंह" का उदहारण देखिए जिसमे एक गधा कहीं से शेर की खाल पा जाता है और उसे ओढ कर सिंह की नकली भूमिका अदा करने लगता है. पर जब मस्ती में उसका ढेंचू-ढेंचू स्वर उभरता है तो सारा भेद खुल जाता है और उसकी वो पिटाई होती है कि पूछो मत.

"गधा एक था मोटा ताज़ा/बन बैठा वह वन का राजा/कहीं सिंह का चमड़ा पाया/चट वैसा ही रूप बनाया/सबको खूब डराता वन में/फिरता आप निडर हो मन में/..........

और जहाँ यह बाल कविता खत्म होती है तो एक सन्देश छोड़ जाती है:

"देता गधा न धोखा भाई/तो उसकी होती न ठुकाई."

ऐसी ही एक और मजेदार कविता है पंडित सुदर्शनाचार्य की "हाऊ और बिलाऊ" जिसमे दो भाइयों के चरित्र का वर्णन है. जहाँ एक ओर बड़ा भाई बिलाऊ धनवान था पर स्वाभाव का खोटा था वही छोटा भाई हाऊ गरीब था पर चतुर था. हालांकि यह कविता एक पूर्ण कथा नहीं बन पाती पर अपने वर्तमान रूप में भी बच्चों का मनोरंजन तो करती ही है.

आल्हा-गान की परंपरा हमारे यहाँ बहुत पुरातन रही है. पुरुषोत्तमदास टंडन की बाल कविता "बन्दर सभा" इसी शैली में रची गई कविता है.

मैथिलीशरण गुप्त ने "माँ, कह एक कहानी" में संवाद शैली का प्रयोग कर यशोधरा और राहुल की पूरी कथा पिरोई है-

"माँ कह एक कहानी/बेटा, समझ लिया क्या तुने/मुझको अपनी नानी? कहती है मुझ से ये चेती/तू मेरी नानी के बेटी/कह, माँ, कह लेटी-ही-लेटी/राजा था या रानी.

कविता में किस्सागोई का एक भला-सा नमूना रामनरेश त्रिपाठी की "मामी निशा" में देखा जा सकता है:-

"बुढ़िया चला रही थी चक्की/पूरे साठ साल की पक्की/दोने में थे राखी मिठाई/उस पर उड़कर मक्खी आई/बुढिया बांस उठाकर दौडी/बिल्ली खाने लगी पकौड़ी/झपटी बुढ़िया घर के अंदर/कुत्ता भागा रोटी लेकर/बुढिया तब फिर निकली बाहर/बकरा घुसा तुरत ही भीतर/बुढिया चली, गिर गया मटका/तब तक वह बकरा भी सटका/बुढिया बैठ गई तब थक कर/सौंप दिया बिल्ली को ही घर."

इस छोटी-सी बाल कविता में बुढिया के साथ जितनी घटनाएं जल्दी-जल्दी घटती हैं वे ही इस कविता में जान डालती हैं. जाहिर है कि ऐसी बाल कविताएँ वही कवि रच सकता है जिसका बच्चों के मनोविज्ञान और उनके संसार से भरपूर वास्ता रहा हो. वैसे भी जीव-जंतुओं के क्रिया-कलाप और उनकी अनोखी दुनिया बच्चों को सदा से आकर्षित करती रही है.भूपनारायण दीक्षित की "तीन बिल्लियाँ चिलबिल्लीं" इसी तरह की दुनिया का चित्रण करती हैं.

जैसा मैंने पूर्व में कहा कि कुछ बाल कविताओं में कथा-सूत्र बड़े होते हैं, फिर ये कथा-सूत्र पौराणिक भी हो सकते हैं अथवा ऐतिसाहिक भी. पर किसी बाल कविता में बड़े कथा-सूत्र का होना ही उसकी कमजोरी नहीं मानी जा सकती बशर्ते उसमे कथा का निर्वाह अपने पूरे प्रवाह के साथ हुआ हो. सुभद्रा कुमार चौहान की विख्यात कविता "झाँसी की रानी"(जों अब देशभक्ति और जनजागरण गीत बन चुकी है) इस तरह का अनुपम उदाहरण है:

"सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी/बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थे/गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी/दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी/चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुराणी थी/बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी/खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी."

हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की "नानी की नाव" अपनी ध्वन्यात्मकता के लिए याद रखी जा सकती है. कुछ पाठकों को स्मरण होगा कि इस बाल कविता का उपयोग अपनी पूरी गेयता के साथ अशोक कुमार अभिनीत एक फिल्म में बखूबी हो चुका है:

"नाव चली, नानी के नाव चली/नीना कि नानी के नाव चली/लंबे सफर पर/आओ चलो/भागो चलो/जागो चलो/आओ/नाव चली, नानी के नाव चली/नीना की नानी की नाव चली/सामन घर से निकाले गए....एक चादी एक घड़ी/एक झाडू-एक लादू/एक संदूक/एक बन्दूक/एक सलवार-एक तलवार/एक घोड़े की जीन-एक ढोलक,एक बीन/एक घोड़ी की नाल-एक मछुए का जाल....नाव चली, नानी की नाव चली/नीना की नानी के नाव चली/फिर एक मगर ने पीछा किया/नानी की नव का पीछा किया/पीछा किया तो फिर क्या हुआ...चुपके से पीछे से/ऊपर से नीचे से/एक-एक सामन खींचा गया/एक कौड़ी छदाम/एक केला-एक आम/एक कच्चा-एक पक्का....एक तोता-एक भालू/एक लहसुन-एक भालू..."

हरिवंश राय बच्चन की यूँ तो बहुत-सी मनोरंजक बाल कविताएँ हैं पर उनकी "काला कौआ" बाल कविता में तो एक पूरी लोक-कथा ही बिंधी हुई है:

"उजला-उजला हंस एक दिन/उड़ते-उड़ते आया/हंस देख कर काला कौआ मन ही मन शरमाया/लगा सोचने उजला-उजला कमाएँ कैसे हो पाऊँ/उजला हो सकता हूँ साबुन से मैं अगर नहाऊं/यही सोचता मेरे घर आया काला कागा/और गुसलखाने से मेरा साबुन ले भगा/फिर जाकर गडही पर उसने साबुन खूब लगाया/खूब नहाया,मगर न अपना कालापन धो पाया /मिटा न उसका कालापन तो मन ही मन पछताया/पास हंस के कभी न फिर वह काला कौआ आया/"

किस्सागोई का एक और अनूठा एवं मनोरंजन उदहारण देखना है तो रामेश्वरदयाल दुबे के "खोटी अठन्नी से अच्छी बाल-कविता मुझे शायद ही कोई नज़र आई हो-

" आओ, तुम्हे सुनाएँ अपनीबात बहुत ही छोटी/किसी तरह आ गई हमारे हाह अठन्नी खोटी/रहा सोचता बड़ी देर तक, पर न याद कुछ आया/किसने दी, कैसे यह आई, अच्छा धोखा खाया/जों हो, अब तो चालाकी से, होगा इसे चलाना/किन्तु सहज है, नहीं आजकल मूरख-बुद्धू पाना/साग और सब्जी लेने में उसे खूब सरकाया/कभी सिनेमा की खिड़की पर मैंने उसे चलाया/कम निगाह वाले बुड्ढे से मैंने चाय खरीदी/बेफिक्री से मनी बैग से वही अठन्नी दे दी/किन्तु कहूँ क्या, खोटी कहकर सबने ही लौटाई/बहुत चलाई नहीं चली वह, लौट जेब में आई/रोज नई तरकीब सोचता, कैसे उसे चलाऊँ/एक दिवस जों बीती मुझ पर वह भी तुम्हे सुनाऊँ/एक भला-सा व्यक्ति एक दिन निकट हमारे आया/क्या रूपये के पैसे होंगे?रुपया एक बढ़ाया/मौका अच्छा देख. पर्स को मैंने तुरंत निकाला/ बाकी पैसे, वही अठन्नी देकर संकट टला/मैं खुश था चल गई अठन्नी, कैसे मूर्ख बनाया/इसी खुशी में मैं तम्बोली की दूकान पर आया/रुपया देख तम्बोली विहंसा, उसने मारा ताना/खूब, खूब खोटे रूपये को क्या था यहीं चलाना/मैं गरीब हूँ, किसी अन्य को जाकर मूर्ख बनाना/खोता रुपया रहा सामने, उसको देख रहा था/गई अठन्नी, आया रुपया, इस पर सोच रहा था/मूर्ख बनाने चला स्वयं वो पहले मूर्ख बनेगा/सच है जों डालेगा छींटे, कीचड बीच सनेगा/घातक है हर एक बुराई, हो कितनी ही छोटी/सिखा गई है खरी बात वह, मुझे अठन्नी खोटी/"

संदर्भवश एक बात मैं यहाँ कहना जरूर चाहूंगा कि जिस तरह फ़िल्मी संगीत में अंग्रेजी की कहावत "ओल्ड इज गोल्ड" मशहूर है उसी तरह बाल-कविताओं पर भी यह बात पूरी तरह लागू होती है. हालांकि इसमें संदेह नहीं कि आज की बाल कविता ने भी अपने रंग-रूप में अनेक नए आयाम जोड़े हैं पर बीसवीं शातब्दी के आरंभकाल के कवियों ने जैसे बेजोड बाल-कविताएँ हिंदी बाल साहित्य को दी हैं वैसी आधुनिक बाल साहित्य में कम ही मौजूद हैं.रामधारी सिंह दिनकर की "चाँद का कुर्त्ता" में कल्पना और मनोरंजन के सुखद संयोग के साथ किस्सागोई का अपना अलग अंदाज है.

बच्चे आपस में प्रेम करते हैं तो लड़ते-झगड़ते भी हैं. उनके इस झगडे का कैसे निपटारा होता है इसका एक दृश्य निरंकारदेव सेवक की रचना "अगर-मगर" में देखिए:

अगर मगर दो भाई थे/लड़ते खूब लड़ाई थे/अगर मगर से छोटा था/मगर अगर से खोता था/अगर मगर कुछ कहता था/मगर नहीं चुप रहता था/बोल बीच में पड़ता था/और अगर से लड़ता था/अगर एक दिन झल्लाया/गुस्से में भरकर आया/और मगर पर टूट गया/हुई खूब गुत्थम-गुत्था/छिड़ा महाभारत भारी/गिरीं मेज-कुर्सी सारिण/माँ यह सुनकर घबराई/बेलन ले बाहर आई/दोनों को दो-दो जड़कर/अलग कर दी अगर-मगर/ख़बरदार जों कभी लड़े/बंद करो यह सब झगडे/एक ओर था अगर पड़ा/मगर दूरी ओर खड़ा/"

कन्हैयालाल मत्त बच्चों के सिरमौर कवियों में हैं. वे न केवल उत्कृष्ट शिशु गीतों के सर्जक है वरन श्रेष्ठ बाल-कथा गीतों के प्रणेता भी हैं. उनकी बाल कविता "सूरज से यों चंदा बोला" जहाँ नाटकीयता का एक भरपूर उदाहरण है वहीँ "बिस्तर छोडो बिस्तर, ननकू भैया, तोतली बुढिया, नक़ल नवीसी की बीमारी, कलम-दवात की लड़ाई" जैसे बाल कविताएँ उनकी मनोरंजक किस्सागोई की अनूठी शैली को प्रस्तुत करती हैं.

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना आधुनिक बाल-कविता के अनूठे रचयिता माने जाते हैं. उनकी "बतूता का जूता" में कहानी भले ही छोटी है पर यह उनकी सबसे ज्यादा यादगार बाल-कविताओं में से एक है:

"इब्न बतूता पहन के जूता/निकल पड़े तूफ़ान में/थोड़ी हवा नाक में घुस गई/घुस गई थोड़ी कान में/कभी नाक को, कभी कान को/मलते इब्न बतूता/इसी बीच में निकल पड़ा/उनके पैरों का जूता /उड़ते-उड़ते जूता उनका/जा पहुंचा जापान में/इब्न बतूता खड़े रह गए/मोची की दूकान में.

शिशु-गीतों के प्रख्यात रचयिता शेरजंग गर्ग की बाल-कविता 'तीनो बन्दर महाधुरंधर" आज के सन्दर्भ में गाँधी-दर्शन को रेखांकित करती है.

"गांधीजी के तीनों बंदर पहुंचे चिड़ियाघर के अंदर/एक चढ़ाये बैठा चश्मा/देख रहां रंगीन करिश्मा/अछाई कम, अधिक बुराई/भले-बुरों में हाथा-पाई/खूब हुआ दुष्टों से परिचय/मन ही मन कर बैठा निश्चय/दुष्ट जनों से सदा लड़ेगा/इस चश्मे से रोज पढ़ेगा/ दूजा बैठा कान खोलकर/देखो कोई बात बोलकर/बुरा सुनेगा, सही सुनेगा/जों अच्छा है वही सुनेगा/गूँज रहा संगीत मधुर है/कोयल का हर गीत मधुर है/भला-बुरा सुनना ही होगा/लेकिन सच सुनना ही होगा/और तीसरा मुंह खोले है/ बातों में मिस्री घोले है/मीठा सुनकर ताली देता/नहीं किसी को गाली देता/मोहक गाना सीख रहा है/वह काफी खुश दीख रहा है/नेकी देख प्रशंसा करता/लेकिन नहीं बदी से डरता/आया नया ज़माना आया/नया तरीका सबको भाया/तीनों बंदर बदल गए हैं/तीनों बंदर संभल गए हैं."

बाल-कविता में यात्रा-कथा भी किस तरह ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक सिद्ध हो सकती है इसे डॉ. राष्ट्रबंधु की "टेसू जी की भारत यात्रा" में देखा जा सकता है,हालांकि वह अपने कंटेंट के लिहाज से एक पुस्तकाकार बाल कविता है. उसके बरक्स प्रकाश मनु की "एक मटर का दाना" अपनी प्रस्तुति में छोटी भी है और मनोरंजक भी. इनके अलावा देवेन्द्र कुमार की "सड़कों की महारानी", कृष्ण शलभ की "खत्म हो गए सारे पैसे, रमेश तैलंग की "एक चपाती, निक्का पैसा, सोन मछरिया, कुटकुट गिलहरी ", में भी मनोरंजक गीत-कथाएं पिरोई गई है. नई पीढ़ी के जिन अन्य बाल कवियों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है उनमे डॉ.मोहम्मद फहीम खां, डॉ. मोहम्मद अरशद खां, डॉ. नागेश पाण्डेय "संजय" के नाम पमुख हैं.

मेरा मानना है कि अलग-अलग विधा होते हुए भी कविता में कहानी कहने की कला को विधाओं की अराजकता के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए. वैसे भी आज फ्यूजन का ज़माना है फिर चाहे वह संगीत का क्षेत्र हो या कला-साहित्य का. बस, ध्यान रखने योग्य बात यह है कि बाल-कविताओं में ऐसे प्रयोग, लय की प्रधानता, गेयता, मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन की कीमत पर नहीं किए जाने चाहिए.

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